इक्कीसवीं सदी में क्यों जरूरी है समान नागरिक संहिता, इसे लागू करना वैधानिक रूप से कितना सही, जानें

धुनिक युग में गणतंत्र की सर्वस्वीकृत अपेक्षा हो चली है कि राष्ट्र की अभिव्यक्ति में उसके सभी अवयवों की साझेदारी और सहमति हो। इसी दृष्टि से सभी देश के अंग होने और पहचान के लिए नागरिक की इकाई को स्वीकार करते हैं। नागरिकता का विचार नागरिक होने की उस न्यूनतम व्यवस्था को रेखांकित और व्यक्त करता है जो सर्वानुमति या सहमति से अंगीकार की जाती है। इसकी अनिवार्य स्वीकृति देश की सीमा के अंतर्गत रहने वालों को जीने का समान आधार मुहैया करती है। इस दृष्टि से भारतीयों या भारतवासी नागरिकों के लिए एकल या समान नागरिक संहिता का प्रावधान सामाजिक, आर्थिक और मानवीय भेदभाव को समाप्त करने के लिए एक अनिवार्य कदम सिद्ध होगा।

संविधान में निहित समता और समानता की चिर-अभिलाषित आकांक्षाओं को वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए देश के सभी नागरिकों को नागरिक की हैसियत में एक तरह का बर्ताव करने और पाने की व्यवस्था जरूरी है। ऐसा न करना विश्व-पटल पर देश के लिए हास्यास्पद स्थिति पैदा करता है। यदि हम प्रगति करना चाहते हैं और समतामूलक समाज की स्थापना चाहते हैं तो इसे अपनाना होगा। इसे अस्वीकार करने का आशय देश की अस्मिता को चुनौती देने जैसा है। ऐसा न होने पर भारतीय नागरिक के विचार को लेकर संशय और अस्पष्टता ही बढ़ेगी।

आज के युग में जब पंथनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म), वैज्ञानिकता, राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक समता के लक्ष्य को स्वीकार किया जा रहा है, सारे देश के लिए समान नागरिक संहिता एक स्वाभाविक आवश्यकता हो गई है। आज विश्व के अधिकांश उन्नत देशों ने इस प्रणाली को सफलतापूर्वक अपनाया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-44 स्पष्ट रूप से राज्य द्वारा समान नागरिक संहिता को अपनाने के लिए प्रयत्न करने की वकालत करता है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी बार-बार इसकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इसके लागू किए जाने में सरकारी हीला-हवाली की प्रवृत्ति की आलोचना की जाती रही है।

न केवल वैधानिक दृष्टि से ही यह सही ठहरती है बल्कि मानव धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भी समान नागरिक संहिता आवश्यक है। यह सबको साथ लेकर चलने के लिए अवसर पैदा करती है। भारत के सभी नागरिक इसके हकदार हैं और प्रभुसत्तासंपन्न भारतीय गणतंत्र की यह जरूरत है। विकसित राष्ट्रों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए हमारी पात्रता भी इससे जुड़ी हुई है। भारत देश के स्वतंत्र होने के पचहत्तर वर्षों के सामाजिक-राजनैतिक अनुभव का आंकड़ा जिन प्रवृत्तियों की ओर संकेत करता है, वे भी समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता स्थापित करती हैं।

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